मसवासी, उन्नाव स्थित पौराणिक श्री गोकुल बाबा मंदिर का वार्षिक मेला, 7 नवंबर से मंदिर प्रांगण में विधिवत रूप से प्रारंभ हो चुका है। इस मेले में वर्षों पुरानी परंपराओं को आज भी उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। मेले की शुरुआत मठ पूजन से होती है, जिसमें चावल के आटे और हल्दी से मंदिर की दीवारों की पुताई की जाती है। महिलाएं इस पूजा में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। इसके अगले दिन सप्तमी को मुख्य मेले का आयोजन होता है, जो अष्टमी तक प्रमुख रूप से चलता है।
मेले की प्रमुख विशेषताएँ
1. सात दिवसीय उत्सव:
पहले यह मेला 2-3 दिनों तक सीमित था, लेकिन अब इसे सात दिनों तक आयोजित किया जाता है। पूर्णिमा पर यह शुक्लागंज गंगा घाट पर स्थानांतरित हो जाता है, जहां गंगा स्नान के साथ इसका समापन होता है।
2. हस्तनिर्मित सामानों की खरीदारी:
मेले में लकड़ी, लोहे, और पत्थर से बने उत्पाद प्रसाद के रूप में खरीदे जाते हैं, जिनमें कुर्सी, बेंच, बेलन, सिलबट्टा, अलमारी, और बच्चों की गाड़ियाँ प्रमुख हैं।
3. सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक:
यह मेला हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई समुदायों के बीच आपसी सौहार्द का प्रतीक है।
4. मनोरंजन और खानपान:
मेले में सर्कस, झूले, और चाट जैसे मनोरंजन व खाद्य सामग्री भी मुख्य आकर्षण हैं। महिलाएं अपने घरेलू जरूरतों की वस्तुएं खरीदने के लिए बड़ी संख्या में आती हैं।
मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
श्री गोकुल बाबा मंदिर, जिसकी स्थापना श्री गोकुल सिंह द्वारा की गई थी, अपने ऊंचे चबूतरे और विशाल शिवलिंग के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर एक सिद्ध स्थल माना जाता है, जहां भक्त अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं।
पौराणिक कथा और धार्मिक आस्था
गोकुल बाबा, जो मातृभक्ति के कारण अविवाहित रहे, की स्मृति में यह मेला आयोजित किया जाता है। यह मेला कार्तिक शुक्ल पक्ष की छठ से आरंभ होता है और अष्टमी तक चलता है। इसके बाद यह गंगा घाट पर स्थानांतरित हो जाता है।
पुलिस व प्रशासनिक व्यवस्था
मेले की व्यवस्था ग्रामवासियों और पुलिस विभाग द्वारा संभाली जाती है।
श्री गोकुल बाबा मंदिर के वार्षिक मेले की परंपरा को संरक्षित और सहेजने में पंडित कृष्ण वल्लभ पांडेय का योगदान अतुलनीय रहा है। वर्ष 2001 तक पंडित पांडेय, जो साप्ताहिक रणनाद के संस्थापक भी थे, ने इस मेले की सभी गतिविधियों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी कुशल नेतृत्व क्षमता और समर्पण के कारण यह मेला न केवल धार्मिक उत्सव के रूप में विकसित हुआ, बल्कि क्षेत्रीय सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी बन गया।
यह मेला न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक समरसता का आदर्श भी प्रस्तुत करता है।
अरुण पाण्डेय
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